इंदिरा गाँधी को गेंदे के फूल से चिढ़ क्यों थी- विवेचना
भारतीय राजनीति में गेंदे के फूल का अपना महत्व है. कोई भी राजनीतिक आयोजन या स्वागत समारोह गेंदे के फूल के बिना अब भी संपन्न नहीं होता.
लेकिन भारत की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को गेंदे के फूल से 'एलर्जी' थी और उनके स्टाफ़ को निर्देश थे कि उनका कोई भी प्रशंसक उनके पास गेंदे के फूल ले कर न आ पाए.
बहुचर्चित किताब 'द मेरीगोल्ड स्टोरी- इंदिरा गाँधी एंड अदर्स' की लेखिका और वरिष्ठ पत्रकार कुमकुम चड्ढा बताती हैं, "इंदिरा की पूरी ज़िंदगी में उनके स्टाफ़ की सबसे बड़ी जद्दोजहद होती थी कि गेंदे का फूल इंदिरा गाँधी के नज़दीक न पहुंच जाए. वजह ये थी कि उन्हें गेंदे के फूल पसंद नहीं थे."
वो कहती हैं, "अगर कोई उनके पास गेंदे का फूल ले जाने में सफल हो भी जाता था तो उनकी त्योरियाँ चढ़ जाती थीं."
"लेकिन उनका ये गुस्सा उन लोगों के लिए नहीं होता था जो उनके लिए फूल ले कर आते थे, बल्कि अपने स्टाफ़ के लिए होता था कि उनके रहते ये कैसे संभव हो सका."
गेंदे से ही लिपटा इंदिरा का पार्थिव शरीर
विडंबना है कि जब इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उनके पार्थिव शरीर को तीन मूर्ति भवन में लोगों के दर्शनों के लिए रखा गया तो उनके चारों तरफ़ गेंदे के ही फूल थे.
एक समय तो कुमकुम का जी भी चाहा कि वो उठ कर उन फूलों को हटा दें.
वो याद करती हैं, "अगर मेरा बस चलता तो मैं उठ कर उनके पास से गेंदे का हर फूल उठा देती. लेकिन मौक़ा इतना औपचारिक था कि मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाई."
"मैंने धवन की तरफ़ देखा, लेकिन वो भी इतने टूटे हुए थे और बदहवास थे कि उनका भी इस तरफ़ ध्यान नहीं गया. लेकिन अगर इंदिरा गाँधी जीवित होतीं और किसी और के साथ ऐसा हुआ होता वो ज़रूर उठ कर गेंदे के फूल हटवातीं."
जवाहरलाल नेहरू की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इंदिरा गाँधी भी रोज़ सुबह आठ बज कर बीस मिनट पर आम लोगों से मिला करती थीं. इसे उनका 'दर्शन दरबार' कहा जाता था.
हफ़्ते में कम से कम तीन बार कुमकुम चड्ढा इस 'दर्शन दरबार' में मौजूद रहा करती थीं.
कुमकुम बताती हैं कि नत्थू इंदिरा के पीछे छाता लिए खड़े रहते थे, क्योंकि उन्हें धूप से भी 'एलर्जी' थी.
वो कहती हैं, "इंदिरा इस मौके का इस्तेमाल भारत के आम लोगों से मिलने के लिए करती थीं. कभी कभी जब भीड़ अनियंत्रित हो जाती थी, तो उन लोगों को तरजीह दी जाती थी, जो दिल्ली से बाहर से आते थे."
"इस दरबार में दो तरह के लोग आते थे. एक तो वो जो सिर्फ़ इंदिरा गांधी को देखना भर चाहते थे. दूसरे वो जिन्हें छोटे मोटे काम करवाने होते थे, जैसे सरकारी अस्पताल में किसी का इलाज करवाना."
"बहुत से लोग इंदिराजी के पैर छूने की कोशिश करते थे, हाँलाकि उन्हें अपने पैर छुवाना बिल्कुल पसंद नहीं था. एक बुज़ुर्ग शख़्स रोज़ उनके लिए कच्चा नारियल ले कर आते थे. लोग तिरुपति का लड्डू भी लाते थे. उन्हीं के घर पर पहली बार मैंने तिरुपति का प्रसाद खाया था."
इंदिरा गाँधी हमेशा इस बात का ध्यान रखती थीं कि वो दिखती कैसी हैं. एक बार वो अपने एक कैबिनेट मंत्री से इस बात पर नाराज़ हो गई थीं कि उन्होंने इंदिरा गाँधी के हुस्न की तारीफ़ करने की जुर्रत की थी.
कुमकुम चड्ढा याद करती हैं, "श्रीमति गाँधी के साथ एक 'पर्सनल लाइन' पार करने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता था. मैंने उनकी उपस्थिति में लोगों को हँसते हुए भी नहीं देखा. लोग बोलते भी तभी थे, जब वो उन्हें बोलने का 'क्यू' देती थी. मध्यप्रदेश के उनके एक मंत्री ने कैबिनेट बैठक के दौरान उनके सौंदर्य की तारीफ़ कर दी थी. उन्होंने उन्हें तुरंत बाहर का रास्ता दिखाया. बाद में जब उन साहब ने उनके दर्शन दरबार में जा कर अपने किए पर अफ़सोस जताने की कोशिश की, तो इंदिरा गाँधी ने उनकी तरफ़ देखा भी नहीं."
इसी तरह उनके गुस्से का शिकार मशहूर अंग्रेज़ी लेखक डॉम मोरेस को भी बनना पड़ा था. उन्होंने इंदिरा गाँधी की जीवनी लिखी थी, 'मिसेज़ गांधी,' जिसके कुछ अंश उनको पसंद नहीं आए थे.
मशहूर प्रकाशक, पत्रकार और लेखक अशोक चोपड़ा एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार मैं इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी के दफ़्तर में बैठा हुआ था. तभी मैने देखा कि बहहवास से डॉम मोरेस कमरे में घुसे. ऐसा लग रहा था कि उन्हें सांप सूंघ गया हो. वो इंदिरा गाँधी के घर से आ रहे थे. उनके हाथ में इंदिरा गाँधी पर लिखी उनकी ताज़ा किताब थी, जो 'गिफ़्टरैप्ड' थी. वो इंदिरा गाँधी को अपनी किताब 'गिफ़्ट' करने गए थे. उन्होंने सोचा था कि वहाँ राष्ट्रीय प्रेस मौजूद होगी. लेकिन वहाँ सन्नाटा था. उन्हें एक कोने में बैठा दिया गया."
वो कहते हैं, "थोड़ी देर में उनके स्टाफ़ ने कहा कि इंदिराजी तो दफ़्तर जाने के लिए अपनी कार में बैठने जा रही है. आप वहीं जा कर उनसे मिल लीजिए. डॉम दौड़ते हुए वहाँ पहुंचे. डॉम ने इंदिराजी का अभिवादन किया. उन्होंने कहा 'कहिए'. डॉम बोले,' मैं आपको ये किताब देने आया हूँ.' इंदिरा गाँधी ने कहा, 'बुक? व्हाट बुक? मैं कूड़ा-कर्कट नहीं पढ़ती. आप ये किताब वापस ले जाइए.' इतना कह कर इंदिरा अपनी कार में बैठ गईं."
वो बताते हैं, "सारा सीन 10 सेकेंड में ख़त्म हो गया. डॉम ने ये किस्सा खुद हमें सुनाया. अरुण शौरी ने कहा, 'इंदिरा ने आपकी ये किताब लेने से इंकार कर दिया है. आप ये किताब मुझे क्यों नहीं भेंट दे देते.' जब हमने किताब खोली तो उसके पहले पन्ने पर लिखा था, 'टू सब्जेक्ट ऑफ़ दिस बुक, डॉम.' वो किताब अब भी अरुण शौरी के पास होगी."
लेकिन भारत की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को गेंदे के फूल से 'एलर्जी' थी और उनके स्टाफ़ को निर्देश थे कि उनका कोई भी प्रशंसक उनके पास गेंदे के फूल ले कर न आ पाए.
बहुचर्चित किताब 'द मेरीगोल्ड स्टोरी- इंदिरा गाँधी एंड अदर्स' की लेखिका और वरिष्ठ पत्रकार कुमकुम चड्ढा बताती हैं, "इंदिरा की पूरी ज़िंदगी में उनके स्टाफ़ की सबसे बड़ी जद्दोजहद होती थी कि गेंदे का फूल इंदिरा गाँधी के नज़दीक न पहुंच जाए. वजह ये थी कि उन्हें गेंदे के फूल पसंद नहीं थे."
वो कहती हैं, "अगर कोई उनके पास गेंदे का फूल ले जाने में सफल हो भी जाता था तो उनकी त्योरियाँ चढ़ जाती थीं."
"लेकिन उनका ये गुस्सा उन लोगों के लिए नहीं होता था जो उनके लिए फूल ले कर आते थे, बल्कि अपने स्टाफ़ के लिए होता था कि उनके रहते ये कैसे संभव हो सका."
गेंदे से ही लिपटा इंदिरा का पार्थिव शरीर
विडंबना है कि जब इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उनके पार्थिव शरीर को तीन मूर्ति भवन में लोगों के दर्शनों के लिए रखा गया तो उनके चारों तरफ़ गेंदे के ही फूल थे.
एक समय तो कुमकुम का जी भी चाहा कि वो उठ कर उन फूलों को हटा दें.
वो याद करती हैं, "अगर मेरा बस चलता तो मैं उठ कर उनके पास से गेंदे का हर फूल उठा देती. लेकिन मौक़ा इतना औपचारिक था कि मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाई."
"मैंने धवन की तरफ़ देखा, लेकिन वो भी इतने टूटे हुए थे और बदहवास थे कि उनका भी इस तरफ़ ध्यान नहीं गया. लेकिन अगर इंदिरा गाँधी जीवित होतीं और किसी और के साथ ऐसा हुआ होता वो ज़रूर उठ कर गेंदे के फूल हटवातीं."
जवाहरलाल नेहरू की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इंदिरा गाँधी भी रोज़ सुबह आठ बज कर बीस मिनट पर आम लोगों से मिला करती थीं. इसे उनका 'दर्शन दरबार' कहा जाता था.
हफ़्ते में कम से कम तीन बार कुमकुम चड्ढा इस 'दर्शन दरबार' में मौजूद रहा करती थीं.
कुमकुम बताती हैं कि नत्थू इंदिरा के पीछे छाता लिए खड़े रहते थे, क्योंकि उन्हें धूप से भी 'एलर्जी' थी.
वो कहती हैं, "इंदिरा इस मौके का इस्तेमाल भारत के आम लोगों से मिलने के लिए करती थीं. कभी कभी जब भीड़ अनियंत्रित हो जाती थी, तो उन लोगों को तरजीह दी जाती थी, जो दिल्ली से बाहर से आते थे."
"इस दरबार में दो तरह के लोग आते थे. एक तो वो जो सिर्फ़ इंदिरा गांधी को देखना भर चाहते थे. दूसरे वो जिन्हें छोटे मोटे काम करवाने होते थे, जैसे सरकारी अस्पताल में किसी का इलाज करवाना."
"बहुत से लोग इंदिराजी के पैर छूने की कोशिश करते थे, हाँलाकि उन्हें अपने पैर छुवाना बिल्कुल पसंद नहीं था. एक बुज़ुर्ग शख़्स रोज़ उनके लिए कच्चा नारियल ले कर आते थे. लोग तिरुपति का लड्डू भी लाते थे. उन्हीं के घर पर पहली बार मैंने तिरुपति का प्रसाद खाया था."
इंदिरा गाँधी हमेशा इस बात का ध्यान रखती थीं कि वो दिखती कैसी हैं. एक बार वो अपने एक कैबिनेट मंत्री से इस बात पर नाराज़ हो गई थीं कि उन्होंने इंदिरा गाँधी के हुस्न की तारीफ़ करने की जुर्रत की थी.
कुमकुम चड्ढा याद करती हैं, "श्रीमति गाँधी के साथ एक 'पर्सनल लाइन' पार करने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता था. मैंने उनकी उपस्थिति में लोगों को हँसते हुए भी नहीं देखा. लोग बोलते भी तभी थे, जब वो उन्हें बोलने का 'क्यू' देती थी. मध्यप्रदेश के उनके एक मंत्री ने कैबिनेट बैठक के दौरान उनके सौंदर्य की तारीफ़ कर दी थी. उन्होंने उन्हें तुरंत बाहर का रास्ता दिखाया. बाद में जब उन साहब ने उनके दर्शन दरबार में जा कर अपने किए पर अफ़सोस जताने की कोशिश की, तो इंदिरा गाँधी ने उनकी तरफ़ देखा भी नहीं."
इसी तरह उनके गुस्से का शिकार मशहूर अंग्रेज़ी लेखक डॉम मोरेस को भी बनना पड़ा था. उन्होंने इंदिरा गाँधी की जीवनी लिखी थी, 'मिसेज़ गांधी,' जिसके कुछ अंश उनको पसंद नहीं आए थे.
मशहूर प्रकाशक, पत्रकार और लेखक अशोक चोपड़ा एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार मैं इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी के दफ़्तर में बैठा हुआ था. तभी मैने देखा कि बहहवास से डॉम मोरेस कमरे में घुसे. ऐसा लग रहा था कि उन्हें सांप सूंघ गया हो. वो इंदिरा गाँधी के घर से आ रहे थे. उनके हाथ में इंदिरा गाँधी पर लिखी उनकी ताज़ा किताब थी, जो 'गिफ़्टरैप्ड' थी. वो इंदिरा गाँधी को अपनी किताब 'गिफ़्ट' करने गए थे. उन्होंने सोचा था कि वहाँ राष्ट्रीय प्रेस मौजूद होगी. लेकिन वहाँ सन्नाटा था. उन्हें एक कोने में बैठा दिया गया."
वो कहते हैं, "थोड़ी देर में उनके स्टाफ़ ने कहा कि इंदिराजी तो दफ़्तर जाने के लिए अपनी कार में बैठने जा रही है. आप वहीं जा कर उनसे मिल लीजिए. डॉम दौड़ते हुए वहाँ पहुंचे. डॉम ने इंदिराजी का अभिवादन किया. उन्होंने कहा 'कहिए'. डॉम बोले,' मैं आपको ये किताब देने आया हूँ.' इंदिरा गाँधी ने कहा, 'बुक? व्हाट बुक? मैं कूड़ा-कर्कट नहीं पढ़ती. आप ये किताब वापस ले जाइए.' इतना कह कर इंदिरा अपनी कार में बैठ गईं."
वो बताते हैं, "सारा सीन 10 सेकेंड में ख़त्म हो गया. डॉम ने ये किस्सा खुद हमें सुनाया. अरुण शौरी ने कहा, 'इंदिरा ने आपकी ये किताब लेने से इंकार कर दिया है. आप ये किताब मुझे क्यों नहीं भेंट दे देते.' जब हमने किताब खोली तो उसके पहले पन्ने पर लिखा था, 'टू सब्जेक्ट ऑफ़ दिस बुक, डॉम.' वो किताब अब भी अरुण शौरी के पास होगी."
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